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Channel: Navbharat Times

ये लंदन वाली बन गई दिल्ली वाली

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विवेक शुक्ला
वेस्ट निजामुद्दीन के लिए जाना-पहचाना चेहरा है जिलियन राइट का। इधर एक अरसे से रहती हैं वो। वो यहां के दूकानदारों से लेकर सब्जीवालों तक से हिन्दी में ही भाव-ताव करती हैं। हालांकि पहली बार जब कोई उन्हें हिन्दी में बातचीत करते हुए देखकर हैरान अवश्य हो जाता है। हैरान होना लाजिमी ही है। आखिर कितने गोरे मतलब ब्रिटेन वाले हिन्दी बोल पाते हैं?

राइट का मूड खराब हो जाता है जब कुतुब मीनार या हुमायूं का मकबरा जैसे पर्यटक स्थलों पर उन्हें विदेशी समझकर अधिक एंट्री फीस मांगी जाती है। हिन्दी और उर्दू की प्रख्यात अनुवादक जिलियन राइट कहती हैं, "मैं भारतीय हूं, अपना इनकम टैक्स देती हूं, फिर आप मेरे से अधिक एंट्री फीस क्यों ले रहे हो?" उनकी बात तो सही है। उन्होंने भारत की नागरिकता ले ली है। वो दिल्ली को प्रेम करने वाले किसी भी अन्य शख्स की तरह यहां पर पेड़ों की कटाई से लेकर यमुना के प्रदूषित होने के कारण निराश हैं। उनकी निराश इसलिए और बढ़ जाती हैं, जब वो देखती हैं कि हम सुधर ही नहीं रहे।

पिछले साल जब सुंदर नगर और मथुरा रोड पर लगे दर्जनों पेड़ों को काट दिया गया था, वो तब वहां के अन्य स्थानीय नागरिकों के साथ सड़कों पर उतरीं थीं। वो नाराज थीं कि कोई कैसे इन पेड़ों को स्थानीय निवासियों से पूछे बगैर काट सकता है? मथुरा रोड पर लगे दर्जनों नीम के पेड़ों को काट दिया गया था। वे सभी पेड़ लगभग 70 वर्ष से अधिक उम्र के थे। ये दिल्ली को छाया देकर अपने होने का अहसास करा रहे थे। दिल्ली सरकार ने अपने किसी आगामी प्रोजेक्ट के कारण इन्हें काटा। उसके बाद मथुरा रोड़ पर एक तगड़ा विरोध मार्च निकला। उसमें राइट की भी सक्रिय भागेदारी रही थी। वो निजामुद्दीन एरिया के सामाजिक कार्यकर्ता फरहद सूरी के आग्रह पर उस मार्च से जुड़ी थीं।

जिलियन उदास हो जाती है जब देखती हैं कि सुबह यमुना पर कारें रोककर लोग पूजा सामग्री डाल रहे होते हैं। उन्हें कोई रोकता नहीं। वो मानती हैं कि यमुना को प्रदूषित करने का ही नतीजा है कि अब इसके आसपास विचरण करने वाली सफेद बिल्लियां देखने में नहीं आती। सत्तर के दशक तो हालात ठीक थे। उसके बाद स्थिति हाथ से निकल गईं।

अफसोस साइकिल ना चला पाने का : गिलियन राइट 1977 में दिल्ली में आ गई थीं। तब से अब तक कितनी बदली दिल्ली ? कहती हैं, " मैं जब 40 साल पहले यहां आई थी तब ये शहर बहुत हरा-भरा था। तब से विकास के नाम पर पेड़ कटते रहे, हरियाली घटती रही। अब ये शहर कंक्रीट का जंगल सा हो गया है। मुझे अब बहुत से परिंदे दिखाई नहीं देते,जो पहले खूब दिखते थे। अब सड़कों पर साइकिल भी नहीं चला पातीं हूं। सड़कों पर साइकिलों वालों के लिए स्पेस ही नहीं बचा। अब सिर्फ कारों वालों के बारे में सोचा जाता है।” जाहिर है,ये शिकायत सिर्फ राइट जी की ही नहीं है। यहां पर विकास योजनाओं में साइकिल चलाने वालों के लिए किसी ने सोचा ही नहीं। सड़कों से साइकिल वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।


फिर भी प्यारी लगती दिल्ली : गिलियन राइट को इन सब बातों के बावजूद दिल्ली से बेहतर कोई शहर नहीं लगता। वो इसे छोड़ नहीं सकतीं। अब ब्रिटेन वापस जाकर बसने का तो सवाल ही नहीं है। अब भारत के प्रति निष्ठा निर्विवाद है। दिल्ली में सबसे अच्छा क्या लगता है? तुरंत जवाब मिलता है, “ सच बोलूं तो दिल्ली में आप कभी बोर नहीं होते। यहां पर आपके दोस्त-यार आपसे मिलते-जुलते रहते हैं। हम भी अपने दोस्तों से मिलना पसंद करते हैं। ये सब खूबियां यूरोप के समाज में नहीं मिलती।”

अनुवाद ही अनुवाद : गिलियन राइट यहां विख्यात लेखक और पत्रकार सर मार्क टली के साथ रहती हैं। वो भी खूब बेहतर हिन्दी बोल लेते हैं। राइट लंदन में बीबीसी में भी काम करती थीं। हिन्दी और उर्दू का इतना गहन अध्ययन किया कि भारत आने के बाद राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ला के उपन्यासों क्रमश: ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’का अंग्रेजी में अनुवाद ही कर दिया। उन्होंने भीष्म साहनी की कहानियों का भी अनुवाद किया।

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रिपब्लिक डे परेड : पर्दे के पीछे के हीरो

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जिस रिपब्लिक डे परेड को देखकर हम गर्व महसूस करते हैं और राजपथ के भव्य नजारों को देखकर अपने देश पर नाज होता है। क्या आप जानते हैं कि पुलिस और सेना के साथ-साथ कुछ लोग और भी ऐसे हैं जो इस राष्ट्र पर्व को सफल बनाने में दिन रात एक कर देते हैं। आज हम आपको ऐसे लोगों से रूबरू करा रहे हैं जो सालों से राजपथ, इंडिया गेट और आसपास की चमकती सड़कों को साफ रखते हैं। फूलों की सजावट करके पूरे माहौल को खुशनुमा बना देते हैं। राजपथ पर कोई जानवर या कुत्ता पहुंचकर परेड में बाधा ना बने इसके लिए हमेशा सजग रहते हैं। विरेंद्र वर्मा की स्पेशल रिपोर्ट :

शंकर लाल, सफाई कर्मचारी

58 साल के शंकर लाल पिछले तीस साल से एनडीएमसी में सफाई कर्मचारी हैं। पिछले 20 साल से उनकी ड्यूटी रिपब्लिक डे परेड में लगती है। शंकर लाल बताते हैं कि इंडिया गेट की आसपास की सड़कों की सफाई का काम परेड से करीब एक सप्ताह पहले शुरू हो जाता है और वे रात दिन यहां की सफाई में लगे रहते हैं। परेड के पहले और बाद में घोड़ों की लीद तक वे लोग उठाते हैं। लेकिन उसमें उनको बिल्कुल भी शर्म महसूस नहीं होती। क्योंकि उन्हें यह अहसास रहता है कि वे देश के लिए ही काम कर रहे हैं। 25 जनवरी की रात को तो वे इंडिया गेट के पास बने एनडीएमसी के सर्विस सेंटर में सोते हैं। सफाई को लेकर इस कदर चिंतित रहते हैं कि रात भर नींद नहीं आती सुबह 4 बजे से फिर सफाई में लग जाते हैं।

कृष्ण लाल, सफाई कर्मचारी

परेड की सफाइ्र में लगे एनडीएससी के सफाई कर्मचारी कृष्ण लाल बताते हैं कि वे सिर्फ सफाई नहीं करते, लेकिन आसपास के लोगों पर नजर रखते हैं, कोई संदिग्ध वस्तु डसटबीन में ना रख जाए उनका काम भी जोखिम से भरा है। रात में सफाई करते हुए उनका दो बार एक्सीडेंट भी हो चुका है। कई बार ऐसा हुआ है जब उन्हें कोई पॉलिथीन संदिग्ध लगी और उन्होंने पुलिस को इसकी जानकारी दी। हालांकि उसमें कुछ निकला नहीं। 48 साल के कृष्ण लाल बताते हैं कि वे ग्रुप में सफाई करते हैं, ओर उन्हें फक्र होता है कि वे देश के इतने बड़े आयोजन के लिए सफाई के काम में लगे हैं। रात पर सर्विस सेंटर में रूककर वे दिन रात सड़कें चमकाने में लगे रहते हैं। परेड के बाद इन सड़कों को साफ करना भी चेलेंज का काम रहता है क्योंकि परेड़ में आने वाले लाखों लोग यहां पर गंदगी छोड़ जाते हैं और 31 जनवरी तक वे यहां सफाई में लगे रहते हैं।

संजय, सफाई कर्मचारी

करीब 40 साल के संजय कहते हैं कि भले ही कुछ लोग सफाई के काम के लिए नाक भौं सिकोड़ते हों, लेकिन उन्हें रिपब्लिक परेड के लिए सफाई करने में गर्व महसूस होता है। जब हम सफाई करते हैं तो हमारे दिल में बस यही भावना होती है कि पूरी दुनिया के लोग परेड देखने आ रहे हैं, बिल्कु़ल भी सफाई के मामले में देख की नाक नीची ना हो। इसके लिए खाना पीना भी भूल जाते हैं और दिन में कई कई बार सड़कों की सफाई करते हैं। हर सफाई कर्मचारी एक से दो किलोमीटर का एरिया बांटकर ग्रुप में सफाई की जाती है।

सुरेश, सफाई कर्मचारी

सुरेश भी एनडीएमसी में सफाई कर्मचारी है। पिछले 16 साल से उनकी ड्यूटी परेड में सफाई के लिए लग रही है। वे बताते हैं कि उन्हें इस बात का गर्व है कि हजारों सफाई कर्मचारियों में से उन्हें परेड में सफाई करने का मौका मिलता है। उनके अंदर यह जज्बा रहता है कि देख की रक्षा करने वाले सैनिक जब इस सड़क से होकर गुजरें तो उनके रास्ते में जरा भी कंकड या कूड़ा ना आए। इसलिए वे रात दिन एक करके वे सफाई के काम को चैलेंज के तौर पर लेते हैं।


इन्होंने कई बार रोका है टैंक के नीचे और ओबामा के सामने कुत्तों को जाने से
एनडीएमसी में कुत्ते पकड़ने वाली टीम का भी परेड में बहुत बड़ा रोल होता है। कोई कुत्ता या जानवर परेड के रास्ते में ना आ जाए इसलिए वे हमेशा सजग रहते हैं।

जब ओबामा के सामने जाने से पहले ही इन्होंने पकड़ा था कुत्ता
दिनेश कुमार, एनडीएमसी की कुत्ता पकड़ने वाली टीम में हैं। पिछले 7 साल से उनकी ड्यूटी परेड के दौरान लग रही है। वे इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं कि कोई कुत्ता परेड के बीच में आकर बाधा ना डाल दे। दिनेश बताते हैं कि जब 2015 की परेड में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा दिल्ली आए थे। राष्ट्रपति भवन से फोन आया कि एक कुत्ता यहां आ गया है। वहां ओबामा को गॉर्ड ऑफ ओनर दिया जा रहा था, कुत्ता उनके सामने पहुंचने वाला ही था कि उससे पहले ही उन्होंने उस कुत्ते को फंदा डालकर पकड़ लिया, इससे काफी हद तक असहज स्थिति होने से बच गई। पूरी परेड में उनकी नजर सिर्फ कुत्तों पर ही रहती है और इसके लिए वे दिन रात एक कर देते हैं। करीब 10 पहले से ही वे अपनी टीम के साथ कुत्ते पकड़ने के काम में लग जाते हैं। अब तक 80 से ज्यादा कुत्ते पकड़ चुके हैं।


परेड में टैंक के नीचे आने से बचाया था कुत्ते को
50 साल के क्षेत्रपाल भी एनडीएमसी की कुत्ते पकड़ने वाली टीम का हिस्सा हैं। पिछले 15 साल से उनकी ड्यूटी परेड में लग रही है। वे बताते हैं कि करीब 10 साल पहले राजपथ पर परेड के दौरान टैंक आ रहे थे। उसी समय एक कुत्ता टैंक के नीचे घुस गया उन्होंने भी हिम्मत नहीं हारी और फंदा लगाकर कुत्ते को पकड़ लिया इससे परेड में भी बाधा नहीं आयी और कुत्ता भी बच गया। वे बताते हैं कि इतने साल हो गए लेकिन उन्होंने आज तक परेड नहीं देखी उनका ध्यान तो सिर्फ कुत्तों पर रहता है कि कहीं से कोई कुत्ता ना परेड के बीच में घुस जाए। वे कुत्ते पकड़कर राजा गार्डन भेज देते हैं जब परेड खत्म हो जाती है तो फिर से उन्हें इस एरिया में छोड़ देते हैं।

परेड के आसपास की रोड को ये सजाते हैं फूलों से
परेड के आसपास की रोड पर आप जो फूलों से सजावट देखते हैं उनको सजाने में भी एनडीएमसी के उद्यान विभाग के कर्मचारी दिन रात एक कर देते हैं। ऐसे ही एनडीएमसी के एक माली हैं श्रीराम जो 1982 से फूलों की सजावट का काम देख रहे हैं। श्रीराम बताते हैं कि वे सड़कों के कॉनर्र पर फूलों से तिरंगा बनाने के बोर्ड सजाते हैं। एक बोर्ड को बनाने में करीब 10 से 12 घंटे लग जाते हैं। करीब एक सप्ताह पहले से इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। गाजीपुर फूल मंडी से फूल मंगाते हैं डिजाइयन के हिसाब से बोर्ड में फूल लग जाते हैं। जब तक बोर्ड पूरा नहीं होता तब तक वे इस काम में लगे रहते हैं भले ही रात हो जाए। दिल में बस यही रहता है कि दुनिया तारीफ करे कि देखों कितनी अच्छी सजावट की हुई है।


परेड के लिए एनडीएमसी लगाती है करीब 300 कर्मचारी
परेड के लिए सफाई वयवस्था दुरूस्त करने के लिए एनडीएमसी करीब 300 कर्मचारी लगाती है। इनमें से करीब 60 कर्मचारी रात को भी स्पॉट पर ही सोते हैं, ताकि सफाई में कोई चूक ना रह जाए। एनडीएमसी इंडिया गेट से लेकर तिलक मार्ग तक सफाई कर्मचारी लगाते हैं। इसके अलावा राजपथ को जोड़ने वाली सड़कें रायसीना रोड, रफी मार्ग, रेड क्रॉस रोड, मौलाना आजाद रोड, कृष्ण मेनन मार्ग, के कामराम मार्ग, सी हेक्सागन, पुराना किला रोड, शाहजहां रोड, अकबर रोड, मानसिंह रोड, शेरशाह सूरी रोड, जनपथ, डॉ़ जाकिर हुसैन मार्ग, जसवंत सिंह रोड, कॉपरनिक्स मार्ग, भगवान दास रोड, अशोका रोड सहित आसपास की रोड की सफाई एनडीएमसी देखती है।

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कौन है अल सुबह यमुना की सफाई करने वाला

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अगला काम पौधों को पानी

अशोक उपाध्याय थैलियों को इकट्ठा करके अपनी साइकिल के पीछे एक पैकेट में बांधकर निकलते हैं जनपथ। वहां एनडीएमसी के कूड़ाघर में थैलियों को डाल देते हैं। तब तक साढ़े पांच बज रहे होते हैं। अब पेशे से अखबारों के हॉकर अशोक उपाध्याय जनपथ के अपने सेंटर में अखबारों-पत्रिकाओं को लेने में बिजी हो जाते हैं। फिर उनके बांटने का काम चालू होता है। यह काम सुबह आठ बजे से कुछ पहले समाप्त कर लेते हैं। अब उन्हें उन आम, नीम, जामुन के पौधों को पानी देना है,जो उन्होंने अपने साथियों, ग्राहकों और परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर यमुना तीरे लगाए हैं।


क्यों सुबह-शाम यमुना की सफाई करते रहते हो? भावुक होते हुए वह इस सवाल का जवाब देते हैं, ‘अपनी मां के निधन के बाद अंदर तक टूट गया था। मुझे उनकी हर पल कमी सताने लगी। मैं बचपन से ही अपने माता-पिता के साथ लक्ष्मी नगर से यमुना नदी में किसी तीज-त्योहार के मौके पर आता था। इसलिए यमुना के प्रति भी मां वाली आस्था का भाव था। एक दिन मुझे कहीं से अंदर से आवाज आई कि यमुना की सफाई के रूप में सेवा करने से मेरे दिवंगत माता-पिता प्रसन्न होंगे। फिर मैंने यमुना की अपने स्तर पर सेवा करनी चालू कर दी। अब ये सब करते हुए करीब 15 साल हो गए हैं।’


50 लोग और जुड़ गए हैं

अशोक के साथ इस अभियान में अब कम से कम पचास लोग और भी जुड़ चुके हैं। ये महीने के हर तीसरे और चौथे रविवार को यमुना की सफाई में जुट जाते हैं। इनका सुबह 8 बजे से लेकर 11 बजे तक डटकर काम चलता है। इस दौरान घाटों पर प्लास्टिक के पैकेट, बोतलें, मूर्तियां और अन्य सामान एकत्र कर लिया जाता है। फिर उसे किसी कूड़ाघर में डाला जाता है। अशोक को याद है जब वे अपने पिता शिव दुलारे उपाध्याय और मां के साथ 70 के दशक के अंत में यमुना के घाट पर कुछ वक्त बिताने आने लगे थे। उनके पिता कामकाज की तलाश में 1945 में अयोध्या से दिल्ली आए थे। वे कहते हैं कि उस दौरान यहां यमुना का जल शीशे की तरह चमकता था। गंदगी का नामो-निशान भी नहीं था। आज की यमुना की दुर्दशा देखकर रोना आ जाता है।





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अपने कल्चर की शमा रोशन किए हुए हैं दिल्ली के ये चंद पारसी

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विवेक शुक्ला

दिल्ली और मुंबई के पारसी समाज कुछ अलग हैं। इनमें समानता कम है। जहां मुंबई में आपको टाटा, गोदरेज, वाडिया समेत और भी कई मशहूर पारसी मिलते हैं। दिल्ली में पारसी बिरादरी के सदस्य मुख्य रूप से वकालत और शिक्षा जैसे पेशों से जुड़े हैं। दिल्ली में इनकी तादाद सिर्फ 700 के आसपास है। इसलिए ही पारसी नव वर्ष पर जो रौनक मुंबई में देखने को मिलती है, उसका दिल्ली में अभाव रहता है। यहां इनकी गतिविधियों का केन्द्र बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित पारसी अंजुमन ही है।

कश्मीरी गेट वाले नोवी : खेल कमेंटेटर नोवी कपाड़िया दिल्ली के मूल पारसी समाज से संबंध रखते हैं। वे खालसा कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। चोटी के स्पोर्ट्स राइटर और कमेंटेटर भी हैं। दिल्ली में एक दौर कश्मीरी गेट और मोरी गेट में दर्जनों पारसी परिवार रहा करते थे। कश्मीरी गेट-मोरी गेट से निकलकर कुछ पारसी परिवार डिफेंस कालोनी में भी रहने लगे। अब भी डिफेंस कालोनी में 5-7 पारसी परिवार रहते हैं। कुछ पारसी परिवार गुड़गांव में भी शिफ्ट कर गए। दिल्ली के पारसी हिन्दी ही बोलते हैं अपने निजी जीवन में।

1869 से दिल्ली में : दिल्ली में कब से हैं पारसी? इस सवाल का जवाब मिलता है इंडिया गेट के करीब पृथ्वीराज रोड पर स्थित पारसी कब्रिस्तान में जाकर। वहां पर एक पत्थर पर लिखा है कि सबसे पहले पारसी दिल्ली में 1869 में आए। दिल्ली के प्रमुख पारसियों में दादी मिस्त्री रहे हैं। वे लंबे समय तक माइनॉरिटी कमिशन के मेंबर रहे। उनका परिवार करीब 50 सालों से दिल्ली में बसा हुआ है। वो भी मुंबई से ही है। पर दिल्ली आ गए थे।

अशोक होटल वाले डाक्टर : राजधानी के पहले पांच सितारा अशोक होटल का डिजाइन भी एक मुंबई के पारसी प्रो. ई.बी. डाक्टर ने ही तैयार किया था। डाक्टर के ऊपर जिम्मेदारी थी कि वो 25 एकड़ क्षेत्रफल में होटल का डिजाइन बनाएं। उन्होंने इधर 500 कमरे दिए और 225 पेड़ों के लिए स्पेस निकाला। ये लगभग सभी पेड़ गुलमोहर के हैं। कुछ आम के भी हैं। इस बीच, दिल्ली के पारसी भी अपनी तेजी से घटती आबादी से परेशान हैं। दिल्ली पारसी अंजुमन कुछ समय पहले एक प्रस्ताव लेकर आया था, जिसमें पारसी समाज में शादी करने वाले गैर-पारसियों को भी अंजुमन की गतिविधियों से जोड़ने की सिफारिश की गई थी। पर इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध शुरू हो गया था।

दिल्ली की अदालतों में है दबदबा : दिल्ली में लंबे समय से कम से कम दो पारसियों फली नरीमन और सोली सोराबजी का लीगल क्षेत्र में दबदबा है। ये दोनों मूल से तो मुंबई से हैं, पर अब दिल्ली वाले हो चुके हैं। यहां पर ही रहते हैं। फली नरीमन जब कोर्ट में जिरह करते हैं,तब अपने तर्कों को वजनदार बनाने के लिए पुराने फैसलों और परम्पराओं की झड़ी लगा देते हैं। उनकी स्मरण शक्ति गजब की है। अगर बात सोली सोराबजी की हो तो वे जब जिरह करते हैं तो कही किसी तरह का कंफ्यूजन नहीं होता। उन्हें जेंटिलमेन वकील भी कहा जाता है। उनके तर्क अकाट्य रहते हैं।


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दिल्ली में हिंदी पढ़ातीं ये तमिल-मलयाली टीचर्स

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विवेक शुक्ला

आज हम दिल्ली में बच्चों को हिंदी पढ़ाने वाली दो टीचर्स आर. मीना और श्रीलेखा सुनील की बात कर रहे हैं। ये दोनों ही टीचर्स बहुत खास हैं और इनकी पूरी कहानी पढ़ाकर आप इन्हें सच्ची हिंदी सेवी की श्रेणी में रखना चाहेंगे। ये दोनों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड या बिहार जैसे हिंदी भाषी प्रांतों से नहीं आतीं। इनकी मातृभाषा भी हिंदी नहीं हैं पर ये दोनों पिछले कई सालों से दिल्ली में रहकर हिंदी की सेवा में लगी हैं।


आर. मीना तमिल भाषी होने के बावजूद लगभग 25 सालों से दिल्ली में हिंदी पढ़ा रही हैं। वो मंदिर मार्ग स्थित डीटीईए स्कूल में हिंदी की अध्यापिका हैं। राजधानी के डीटीईए स्कूलों में मुख्य रूप से तमिल भाषी परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। इन्हें 10 वीं कक्षा तक हिंदी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ना होता है। मीना जी बताती हैं कि हमारे डीटीईए स्कूल के तमिल परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चे भी तमिल के स्थान पर हिंदी ही लेते हैं। यहां पर रहने वाले बच्चे हिंदी से अपने को ज्यादा जोड़ कर देखते हैं। हां, वे तमिल भी बोल तो लेते ही हैं। लेकिन, दिल्ली में हिंदी के असर और हिंदी फिल्मों के क्रेज के कारण इधर के तमिल अब हिंदीभाषी ही होते जा रहे हैं।
श्रीलेखा सुनील भी लगभग 20 सालों से मयूर विहार के केरल स्कूल में हिंदी पढ़ा रही हैं। वो केरल के एलेप्पी जिले से आती हैं। वहां ही उन्होंने स्कूल-कॉलेज में हिंदी का गहन अध्ययन किया। हिंदी से इस तरह का भावनात्मक संबंध स्थापित हो गया कि श्रीलेखा जी ने आगे चलकर हिंदी की अध्यापिका बनने का ही फैसला कर लिया। वे बताती है कि केरल में तो हिंदी की स्वीकार्यता निर्विवाद है। केरल हिंदी फिल्मों का दीवाना है। मलयाली बहुत चाव से देखते हैं हिंदी फिल्में।
मीना बताती हैं, ‘मैं चेन्नै से आती हूं। वहां पर स्कूल में मैंने हिंदी पढ़ी थी। मुझे उसी दौरान हिंदी प्रेम और सौहार्द की भाषा लगने लगी। इसके चलते मेरा इसमें अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने का विचार बना। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति के माध्यम से बीए और एमए किया। उन्होंने तुलसी, कबीर निराला, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद का खूब मन से पढ़ा। श्रीलेखा जी रेणु, कृष्णा सोबती और अशोक वाजपेयी को पढ़ना पसंद है। रोज हिंदी अखबारों को भी पढ़ती हैं।
हिंदी अध्यापक बनने के रास्ते में क्या-क्या अवरोध आए? मीना जी कहती हैं कि उन्होंने कई जगह अप्लाई किया। उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया जाता। फिर उन्हें मूलत: तमिल होने के कारण शक की निगाह से देखा जाता कि क्या वो हिंदी पढ़ा पाने में सक्षम होंगी? हालांकि वो सभी अर्हताएं पूरी कर रही थीं, तब भी उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी। हालांकि श्रीलेखा जी को केरल स्कूल में हिंदी टीचर की नौकरी को पाने में लंबी मशक्कत नहीं करनी पड़ी। उन्हें आराम से नौकरी मिल गई।
मीना जी और श्रीलेखा जी कहती हैं कि उन्हें हिंदी का टीचर बनकर गर्व होता है। इसके चलते उनका हिंदीभाषी लोग खासा सम्मान करते हैं। वे भी हर संभव कोशिश करती हैं कि कभी उनकी क्षमताओं पर कोई सवाल खड़े ना करे।

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इस मुगल शहजादी ने कहा था, 'घास ही मेरी कब्र ढकने के लिए काफी है'

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अखिलेश चंद्र, नई दिल्ली
हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से दक्षिण की ओर एक कब्र है। यह जालीदार संगमरमर के पर्दों से घिरी हुई है। दीवारों के नाम पर बस पर्दे भर हैं। इसके ऊपर छत नहीं है। इसे देखकर नहीं कहा जा सकता कि यहां कोई शाही शख्स भी दफन हो सकता है। इस कब्र के ऊपर लिखा है-‘सिवाय हरी घास के मेरी कब्र को किसी भी चीज से न ढका जाए, क्योंकि केवल घास ही इस दीन की कब्र ढकने के लिए काफी है।’ यह कब्र है मुगल शहजादी जहांआरा की। मुगल बादशाह शाहजहां और मुमताज महल की बड़ी बेटी।

जहांआरा की सलाह के बिना उस समय कुछ भी होना मुमकिन नहीं था। बड़ी ही खूबसूरत, धनवान और विदुषी। मगर खुद के लिए उन्होंने शानदार मकबरा नहीं बनवाया। सूफी विचारों से प्रभावित इस शाही महिला ने इंतकाल के बाद दफन होने के लिए हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास की जगह चुनी। जहांआरा ने ही शानदार बाजार चांदनी चौक का डिजाइन तैयार किया था। इसके अलावा, शाहजहांनाबाद में कई इमारतें बनवाईं। फारसी में दो किताबें भी उन्होंने लिखीं।

जहांआरा का जन्म सन् 1614 में हुआ था। सन् 1631 में मुमताज महल के मरने के बाद बादशाह शाहजहां, बड़ी बेटी जहांआरा और बेटे दाराशिकोह पर पूरी तरह निर्भर हो गए। मां के मरने के बाद सिर्फ 17 साल की उम्र में जहांआरा को पादशाह बेगम बनाया गया, जो किसी महिला के लिए सबसे बड़ा ओहदा था। पादशाह बेगम यानी मुगल साम्राज्य की पहली महिला। यह तब हुआ जब मुमताज महल के मरने के बाद भी शाहजहां की तीन पत्नियां और थीं।

सन् 1638 में शाहजहां अपनी राजधानी आगरा से हटाकर दिल्ली लाए। उन्होंने एक नया शहर बसाया-शाहजहांनाबाद। इसकी 18 में से 5 इमारतें जहांआरा की देखरेख में बनी थीं। चांदनी चौक भी जहांआरा की देन है। उन्होंने एक कारवां सराय भी बनवाया था, जो चांदनी चौक में ही था। इसे इतिहासकार बर्नियर ने दिल्ली की शानदार इमारत बताया था। आज जहां टाउन हॉल है यह इमारत वहीं थी।

जहांआरा के हिस्से में सूरत बंदरगाह से मिलनेवाली पूरी आय आती थी। मुमताज महल के इंतकाल के बाद जो उनकी निजी संपत्ति थी उसे शाहजहां ने बांटा। इसका आधा हिस्सा जहांआरा को मिला, जबकि बाकी आधे में सारे बच्चों को दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि उनका खुद का पानी का जहाज 'साहिबी' था जो डच और अंग्रेजों से व्यापार करने सात समंदर पार जाता था। जहांआरा को सुसंस्कृत महिला मान जाता था। आगरा के किले के बाहर अपने महल में वह रहती थीं। उनके अलावा किसी शाही महिला को यह आजादी नहीं थी। यहां तक कि उनकी छोटी बहन रोशनआरा भी किले में ही रहती थीं।

सन् 1657 में मुगल बादशाह शाहजहां गंभीर बीमार पड़ गए। इसके बाद उनके बेटों दाराशिकोह और औरंगजेब में गद्दी के लिए तलवारें खिंच गईं। जहांआरा ने शाहजहां के बड़े बेटे दाराशिकोह का साथ दिया। हालांकि, दाराशिकोह को हार का सामना करना पड़ा और सत्ता औरंगजेब के हाथ लगी।

औरंगजेब ने पिता शाहजहां को कैदखाने में डाल दिया। जहांआरा भी पिता के साथ जेल में देखरेख के लिए रहने लगीं। खुद का विरोध करने के बावजूद औरंगजेब ने जहांआरा को पादशाह बेगम बनाया। जहांआरा आजीवन अविवाहित रहीं। सन् 1681 में 67 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई।

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ई-वेस्ट को 'ठिकाने' लगाने की मुहिम में जुटे 20 युवा

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शमसे आलम, नई दिल्ली
ई-रिसाव की रोकथाम और ई-वेस्ट रिसाइकलिंग को बढ़ावा देने के लिए कुछ स्टूडेंट्स आगे आए हैं। शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनस स्टडीज के ये 20 स्टूडेंट्स अलग-अलग एरिया में जाकर डस्टबिन लगा रहे हैं। इस डस्टबिन में ई-वेस्ट डालने को लेकर अपील कर रहे हैं। इस काम में स्टूडेंट्स को आरडब्ल्यूए और रेजिडेंट्स का भी काफी सहयोग मिल रहा है। स्टूडेंट्स का कहना है कि ई-वेस्ट से निकलने वाले कार्बन से कैंसर, अस्थमा जैसी गंभीर बीमारियों के लोग शिकार हो रहे हैं। इससे लोगों को अवेयर कर रहे हैं, ताकि लोग ई-वेस्ट को घर में न रखें।

इन स्टूडेंट्स ने नवंबर 2018 में रोटरेक्ट शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनस स्टडीज के नाम से एक ऑर्गनाइजेशन भी बनाई है। इस प्रॉजेक्ट का नाम सृजन (स्क्रैप द स्क्रैप) दिया है। इस प्रॉजेक्ट से जुड़े तुषार जिजानी ने बताया कि ई-वेस्ट का घरों में होना और कबाड़ियों को बेचना खतरे से खाली नहीं है। इससे कार्बन निकलता है। वातावरण में कार्बन फैलने से लोग कैंसर-अस्थमा जैसी गंभीर बीमारी के लोग शिकार हो रहे हैं।
अधिकतर लोगों को पता ही नहीं होता है कि इस इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट का क्या करें। कुछ लोग इसे घर में ही किसी कोने में रख देते हैं या फिर कबाड़ियों से बेच देते हैं। कबाड़ी इसे खरीदकर ले जाते हैं, कबाड़ियों को यह पता नहीं होता है कि यह ई-वेस्ट सेहत के लिए कितना खतरनाक है। इसे तोड़कर अपने मतलब का सामान निकाल बेच देते हैं। लोगों को जागरूक करने के लिए हम स्टूडेंट्स ने इस मुहिम की शुरुआत नवबंर 2018 से की है। इसमें काफी हद तक कामयाबी भी मिल रही है। इस काम को देखते हुए बाहरी लोग हमसे जुड़ रहे हैं। अब करीब 50 वॉलंटिअर्स हमसे जुड़कर इस काम में मदद कर रहे हैं।

आरडब्ल्यूए का मिल रहा सहयोग
इस मुहिम से जुड़े स्टूडेंट्स का कहना है कि इस काम के लिए दिल्ली के अलग-अलग एरिया में जाकर आरडब्ल्यूए का सहयोग ले रहे हैं। हम आरडब्ल्यूए को सोसाइटीज में लगाने के लिए ई-वेस्ट डस्टबिन दे रहे हैं। वहीं डोर टु डोर जाकर लोगों से डस्टबिन में ई-वेस्ट डालने को लेकर अपील करते हैं। पांच महीने में 300 सौ किलो से अधिक ई-कचरा जमा कर चुके हैं।

रिसाइकलिंग के लिए टाइअप

स्टूडेंट्स ने बताया कि ई-कचरे को रिसाइकलिंग के लिए कई कंपनियों से टाइअप किया हुआ है, जो कचरे की रिसाइकलिंग करती हैं। यहां सही तरीके से रिसाइकलिंग होने से बीमारी का कोई खतरा नहीं रहता है। इसके बदले कंपनी हमें स्पॉन्सर कर रही है। इसके तहत डस्टबिन भी कपंनी ही मुहैया करा रही है।

ई-वेस्ट को खरीदते भी हैं

इस मुहिम से जुड़े स्टूडेंट्स का कहना है कि अगर कोई ई-वेस्ट बेचना भी चाहता है तो वह बेच भी सकता है। सामान देखकर हम कंपनी का रेट बता देते हैं। जो रेट कंपनी तय करती है, वह रकम हम सामान बेचने वाले को दे देते हैं। हमारा मकसद है ई-वेस्ट की रिसाइकलिंग सही ढंग से हो सके।

ये स्टूडेंट्स हैं शामिल
अदविका गुप्ता, शिवांश जिंदल, शिखर तंवर, शिवम बलराज, तुषर जीजानी, अभिलाषा, नंदनी पोद्दार, निमन्यू, अनन्या, प्रतीक, शिवागमी, काव्य, कृतिका, ज्योति, परनिका, माधव

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दिल्ली में रहकर भी क्यों 'बाहरी' हैं घोघा गांव के लोग?

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मोहम्मद असगर, नई दिल्ली
दिल्ली का लुटियन ज़ोन देखा होगा। पुरानी दिल्ली की गलियों के किस्से सुने होंगे। जंतर-मंतर पर धरनों को दम तोड़ते देखा होगा। संसद मार्च देखे होंगे। ईद-दिवाली पर जगमगाती इमारतें देखी होंगी। लो फ्लोर बसें देखी होंगी, मेट्रो देखी होंगी। सिर्फ दिल्ली ये ही नहीं है। दिल्ली में वे इलाके भी हैं, जहां लोग विकास की बात आते ही कहते हैं, ‘दिल्ली अभी दूर है।’

ऐसा ही इलाका है संसद भवन से करीब 45 किलोमीटर दूर घोघा गांव। जो नरेला विधानसभा इलाके में आता है। घोघा के रहने वाले विशाल सिंह कहते हैं, दिल्ली में होते हुए हमें कभी दिल्ली का नहीं माना गया। तभी तो हम बाहरी दिल्ली वाले हैं। मेट्रो भी हमसे दूर है। इक्का-दुक्का बसें यहां आती हैं। रात में तो दिल्ली से कोई कनेक्शन ही नहीं रह जाता। सुबह होने का इंतजार रहता है। मेट्रो दिल्ली से यूपी चली गई, हरियाणा चली गई, क्या हम दिल्ली वालों का कोई हक नहीं?

घोघा गांव में एंट्री करो तो गेट के पास ही तिरंगा और भगवा झंडा एक जगह लगा नजर आता है। वहां कुछ हवन कुंड बने दिखते हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे थे कि यहां कुछ देशभक्ति के रंग में धार्मिक कार्यक्रम हुआ है। वैसे अंदर बस स्टैंड पर भी एक बड़ा तिरंगा लगा है। बराबर में ही कम्युनिटी सेंटर के गिरते छज्जे अपनी बदहाली की दास्तां सुनाने चाहते हैं, मगर कोई सुन नहीं रहा है। बिल्डिंग की हालत देखकर लगता है शायद विभागों को हादसे का इंतजार है। यहां गांव के लोग बरात को ठहराते हैं। डर है किसी दिन इसकी दीवार गिरकर खुशियों को मातम में ना बदल दे।
लोगों ने बताया कि यह कम्युनिटी सेंटर साहिब सिंह वर्मा ने सीएम रहते हुए बनवाया था। तब से यहां कुछ काम नहीं हुआ। गांव की चौपाल पहुंचे तो वहां बहुत बुज़ुर्ग टाइम पास खेल खेलते मिले। वहां बैठे सुरेन्द्र कुमार गांव के बारे में बताते हैं कि यहां एक साध महाराज नाम के साधु ने आकर तप किया था। उन्होंने देखा बकरी और शेर एक ही नहर पर साथ पानी पी रहे थे। तब उन्होंने सोचा जब पशु में यहां इतना प्रेम है तो क्यों ना यहां गांव बसाया जाए। पहले यहां ब्राह्मण आए, फिर और बिरादरियां आईं। धीरे-धीरे गांव बसता गया। लोग खेती करने लगे। पशु पालने लगे।
गांव के लोग विश्वास रखते हैं कि इस गांव पर साधु महाराज की बड़ी कृपा है, इसलिए उनके नाम पर ही इस गांव का नाम घोघा रखा गया है। उनके नाम का यहां मंदिर भी है। लोगों का दावा है कि सांप, बिसकटा जैसे ज़हरीले कीड़े के काट लेने पर आज भी साध महाराज जी के मंत्र नमोचारण से रोगियों का इलाज किया जाता है। ज़हर उतारा जाता है। यह बात वे बेहद यकीन के साथ कहते हैं कि विष का असर ख़त्म हो जाता है।

बिजली विभाग से रिटायर जय भगवान भारद्वाज कहते हैं, 2014 में सांसद बनने के बाद डॉ. हर्षवर्धन ने इस गांव को गोद लिया था। उन्होंने गांव पर 10 करोड़ रुपये खर्च करने की बात की थी। दावा किया था कि श्मशान घाट बनाएंगे। कम्युनिटी सेंटर की हालत सुधारेंगे, लेकिन यहां सिर्फ उन्होंने बैठने वाली 70 से 80 बेंच और 6 स्ट्रीट लाइट लगवाईं। बाकी कुछ नहीं किया। नाम कर दिया विकास कराया है। हमारे सांसद उदित राज हैं। अगर वह यहां गांव में आ जाएं तो यह देखिए चौपाल में कितने लोग बैठे हैं, इनमें से कोई पहचान भी नहीं पाएगा कि वह उदित राज हैं। इसी से अंदाजा लगाइए क्या काम कराया होगा। अगर इस बार चुनाव लड़ते हैं तो घोघा गांव में 3500 वोट हैं शायद ही कोई उन्हें वोट दे।

विकास की बात होने पर सुरेन्द्र कुमार कहते हैं, ‘सब झूठे वादे हैं। रोज़गार नहीं है। गांव की आधी आबादी से ज़्यादा के बच्चे बेरोजगार घूम रहे हैं। यहां डिस्पेंसरी तक नहीं है। एक डिस्पेंसरी नेहरू के टाइम में बनी थी। उन्होंने ही उसका उद्‌घाटन किया था। पीएम मोदी कहते हैं नेहरू काम नहीं करने दे रहे, लेकिन घोघा मोड़ पर जिस सड़क से आप आए हैं उस सड़क को बनवाने के लिए नेहरू ने अपने सिर पर मिट्टी ढोई थी, और सड़क का उद्‌घाटन किया था। जो काम नेहरू और इंदिरा गांधी ने किए, जो देश का नाम रोशन इंदिरा ने किया वो किसी ने नहीं किया। तब काम हुए, अब झूठ बोला जा रहा है बस फर्क इतना है। पांच साल के अंदर संसद से 45 किलोमीटर दूर के इस गांव में काम नहीं हुआ तो बाकी तो और क्या ही होगा?’

तभी 16-17 साल का लड़का अपने मोबाइल में नेहरू के उद्‌घाटन करने वाली तस्वीर को दिखाता है, यानी इससे साफ था कि ये बात यहां बच्चों तक को पता है, जो मोबाइल में नेहरू की तस्वीर लिए हैं। आबादी बढ़ने के साथ-साथ जरूरतें तो बढ़ीं, लेकिन यहां बुनियादी सुविधाएं नहीं। पुरषोत्तम भारद्वाज कहते हैं, डिस्पेंसरी मयस्सर नहीं। प्राइवेट हॉस्पिटल भी नहीं। सरकारी अस्पताल 8 किलोमीटर दूर है। बड़े हॉस्पिटल और भी दूर। विकास के नाम पर खेतों में नहरों से पानी आना बंद हो गया। बोरवेल कराने पड़ रहे हैं। मुनक नहर का पानी किसानों की पहुंच से दूर हो रहा है।

गांवों की तरक्की की राह सड़कों के बनने से खुलती है, शहर से जोड़ने के लिए सड़क बन चुकी है, मगर घोघा अपने नजदीकी गांवों से जुड़ने के लिए सड़क का इंतजार कर रहा है। घोघा गांव के पड़ोसी गांवों में दरियापुर, कत्लूपूर, हरेवली, बांकनेर गांव आते हैं। कत्लूपूर की सड़क पर तो ये विवाद रहता है कि आधी हरियाणा में और आधा दिल्ली में। इसलिए सरकारें एक दूसरे का बताकर पल्ला झाड़ लेती हैं।

गांव घूमने के दौरान देखा, खेतों में किसान अपनी गेहूं की फसल काट रहे हैं। तेज़ धूप से बचने को सिर पर कपड़ा रख रखा है। सड़कों पर पशु घूम रहे हैं इन पशुओं के बारे में पुरषोत्तम बताते हैं, यहां गोशाला है, लेकिन इन पशुओं को गोशाला वाले नहीं लेते। सौ-सौ सांड और गायों का झुंड रात को खेतों में घुस जाता है। उनसे खेत बचाने के लिए किसान को चौकीदारी करनी पड़ रही है। दिल्ली के किसानों को कोई किसान नहीं मानता। दिल्ली में हमारे गेहूं 15-16 सौ को जाते हैं समर्थन मूल्य नहीं मिलता। जबकि हरियाणा में 17-18 सौ को। हरियाणा की मंडी करीब है, लेकिन दिल्लीवालों को वे नहीं आने देते। दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को हम किसानों के बारे में भी सोचना चाहिए कि हमें भी खाद-पानी चाहिए और फसलों की कीमत भी।

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